Sunday, June 1, 2014

वो फिर अकेला छोड गया है ...

वो फिर अकेला छोड गया है
कुछ अनकहे वादे तोड़ गया है

खामोश बरसती बूंदो संग
इस जहन को तपता छोड़ गया है

इन शब्दों के कोलाहल मैं
कुछ खामोशियाँ वो छोड गया है

हज़ारो सवालो के बीच आज
तनहा शाम वो ढलती छोड गया है

रोज कोशिश होती है, उसे पूरा करने की
मेरे पास जो वो, एक कहानी अधूरी छोड़ गया है

इतना तो कभी मैंने, कुछ न संजोया था
जाने मेरे पास वो अपनी, कैसी निशानी छोड गया है

अक्सर भर लेता हूँ उन्हें, बादलो के टुकड़ो मैं
इंद्रधनुष के रंग, जो मेरे पास, वो सारे छोड़ गया है

अक्सर ढूंढ लेता हूँ मैं, खुद मैं ही उसे
मुझमें जाने अपना वो, कितना हिस्सा छोड़ गया है

अक्सर मुझे यूँ ही घेर लेती है उदासी कभी
जाने मेरे पास वो अपनी, कैसी आदत छोड गया है

अक्सर ही आ जाता है, उसका ख्याल बेवजह
जाने यादो की वो, कैसी खिड़की खोल गया है

यु ही मिल जाता है अक्सर, वो ख्वाबो के गलियारों मैं
इन पलको के सिरहाने, वो ये कैसी नींदे छोड़ गया है

नज़रे हैं की हर आहत पे, उसी को ढूँढ़ती रहती हैं
एक दिन फिर लौट आने की, ये कैसी उम्मीदें छोड़ गया हैं

शायद कुछ बूंदे टिकी हैं पलको पे, उसके फिर मिल जाने तक
इस सहारा में बारिश की, वो एक प्यास छोड़ गया है

जिंदगी जब भी मिली मुझसे, बस चुपचाप ही बैठी रही
इसकी ख़ामोशी मैं घुल जाने का, वो एक अहसास छोड़ गया है  ॥

Tuesday, May 27, 2014

आ तुझे एक खवाब दे दूँ ..

आ तुझे एक खवाब दे दूँ
तेरे अनकहे सवालो का जवाब दे दूँ  !!
बड़ी शिददत से संजोए हुऐ हैं जो लम्हे
आ तुझे, वो बचपन की किताब दे दूँ  !!
जो कभी इस सहरा मे बरस ना पाई
आ तुझे, उन बूँदो का हिसाब दे दूँ  !!
जिंदगी अक्सर, तेरी मुस्कुराहट के आस पास ही मिली मुझे
आ तुझे, मैं आज, ये अहसास दे दूँ  !!
बेचैन इन लहरो को, एक दिन किनारे मिलेंगे ज़रूर
आ तुझे, मैं फिर से, ये विस्वास दे दूँ  !!
खता किसी की भी हो, सज़ा तो दोनो ने पाई है
रास्ते बिछड़ने से पहले, आ तुझे एक आवाज़ दे दूँ  !!!

Saturday, May 24, 2014

भारत महान ...

बड़े घने अंधेरे हैं, इन चमकते चिरागो के नीचे 
जाने कितनी चीखे दबी हैं, जश्न की आवाज़ो के पीछे !
बड़ा जहर घुला है, इन उम्मीदो की हवाओं मे
जाने कितने गुनाह छिपे हैं, इन मातृभूमि की सदाओ मे !
जाने कितने और घर उज़ड़ेगे, विकास के इंतज़ाम मे
जाने क्‍या-क्या लुट जाना है, इस राष्टवादी संग्राम मे !
फिर से उग आई हैं लकीरें, सपनो के जहान मे
जाने कितनी लाशें दफ़न है, मेरे भारत महान मे  ... !!!

Sunday, April 20, 2014

ढूंड ही लेंगे एक दिन ..

ढूंड ही लेंगे एक दिन ...
खवाबो के ठिकानो को तेरे होटो की मुस्कानो को ..
दिल्लगी के बहानो को उलफत के अफ़सानो को ..
बेपरवाह तेरी हँसी को पलको मैं छुपी नमी को ..
तेरी डायरी मैं मुरझाए फुलो को पुराने बक्से मैं लगी धूलो को ..
बचपन के क़िस्सो को जहन के टूटे हिस्सो को ...
ढूंड ही लेंगे एक दिन ...
तेरे काज़ल की लकीरो को ख़यालो मैं डूबी तस्वीरो को ..
यूही तेरे गुनगुनाने को वो बिखरे बाल सुलझाने को ..
बेचेन तेरी करवटो को चादर पर सलवटो को ..
तेरी मासूम शरारतो को आँखो मैं लिखी इबारतो को ..
वो भीड़ मैं तेरे शरमाने को चुप रहकर भी सब कह जाने को ...
ढूंड ही लेंगे एक दिन ...
बारिस मैं फैले तेरे हाथो को अपना अस्तित्व तलाशते जज्बातो को ..
ज़ीने की ख्वाइशो को ज़माने की आज़माइशो को ..
एक दूजे के ख्वाबो को जिन्दगी के सब जवाबो को ..
उम्मीदो के गलियारो को होसलो के किनारो को ..
विश्‍वास की श्याही को एक दूजे की रिहाई को ... !!!

Monday, March 3, 2014

हर रोज की क़ैद है, हर रोज की रिहाई है ... !!!

हर रोज की क़ैद है, हर रोज की रिहाई है 
ज़िदगी, ये तू किस दौर मैं ले आई है । 

व्यवहारिकता के चलन मैं, जो अनदेखी हुई एक बार 
"जिज्ञासा" है, की चेतना से रूठी ही चली आई है । 

कभी बेफिक्री मैं कई दिन यू ही कट जाया करते थे 
जाने कब से इत्मिनान की, एक शाम भी ना गुजर पाई है । 

याद नही कि, कब एक नया ख़याल आया था
समझ पर ना जाने, ये कैसी सरहदे उग आई हैं । 

खरीदता रहता हूँ आजकल बाज़ार से ख़ुशिया
ये मेरे घर के सुकून मैं, कैसी कमी आई है । 

अक्सर तोलने लगता हूँ लोगो की नियते 
जहन पर, ना जाने, ये कैसी लकीरे खिंच आई हैं । 

मैने तो ना सीखा था, युँ  शक करना कभी 
जाने कहाँ से, ये भी आदत लग आई है ॥ 



हर रोज की क़ैद है , हर रोज की रिहाई है 
जो छूटी एक बार "मासूमियत", तो फिर लौट के ना आई है । 

जिसने उंगली पकड़कर चलना सिखाया 
ये जंज़ीरे भी, उसी ने पहनाई हैं । 

जिस आग से सिकती थी रोटियाँ
ये बस्ती भी तो उसी ने जलाई हैं । 

अक्सर एक शाम, जो याद, मुस्कान के आई चेहरे पे
सहर तक पलखे भी, उसी ने रुलाई हैं । 

जिन्होने मिलकर संजोया-सँवारा है, मेरी संवेदनाओ को 
खवाबो पे निगरानी भी तो, उन्ही ने बिठाई है । 

जिस विश्वास ने होसला दिया था लडने का 
अब कत्ल की तोहमत भी उसी पे आई है । 

लगता है की वो मुझ से कुछ कहना चाहती है 
अक्सर अंधेरो मैं दिखती, ये जाने किस की परछाई है ॥ 



हर रोज की क़ैद है, हर रोज की रिहाई है 
बेवजह ढल गया, फिर एक दिन, जहन पर ये कैसी थकान छाई है । 

बार-बार लौट कर, वहीं पर आ जाता हूँ 
जिंदगी, ये तूने कैसी परिधि बनाई है । 

सूखे पत्ते हैं कि, अब उड़ते ही नही 
मौसम मैं, हवाओं की, ये कैसी कमी छाई  है । 

कभी कुछ बातों, इरादो और ख्वाहिशों पे, बड़ा नाज़ था हमे 
ना जाने, अब इस राख मैं, कहीं कोई चिंगारी भी बच पाई है । 

जमाने ने इतना समझा दिया की, समझ ही अब बोझ लगती है 
लगता है, संवेदनाओ की मिट्टी कटते-कटते,  क्षितिज के पार चली आई है ।

इंसान मैं ही, इंसान को क़ैद कर के रख दे
इस जमाने की, बड़ी ज़ालिम ये रुसवाई है । 

उसका तो फरमान आ गया, कि काफ़िर से ना मिल 
मेरा तो सब-कुछ ही छीन लिया, तेरी कैसी ये खुदाई है ॥ 

Sunday, August 22, 2010

... यु ही

जिंदगी तेरी कहानी समझ नहीं आती
खवाब आते हैं तो नींदे नहीं आती !

हवाओ से समां बचाते बहुत जले हैं ये हाथ
महदी अब इन हतेलियो पर कोई रंग नहीं लाती !

नासमझी के कुछ सवाल आज भी वही हैं
क्यों चंद बूंदे भी समंदर से सहरा नहीं आती !

काफिले बहुत डरते हैं लूटेरो से यहाँ
समां अब तमाम रात यहाँ जलाई नहीं जाती !

वो बदलो के टुकडो में तो ढूँढता है खवाब
बारिस के बूंदों में जिंदगी नजर नहीं आती !

आज शाम से ही वो चुपचाप बैठा है
मका की आखरी दीवार उससे गिराई नहीं जाती !

रास्ता मुकदर का वो आज फिर छोड़ आया है
लाशो पे इमारत उससे बनाई नहीं जाती !

रात भर वो बच्चो को सुनाता रहा कहानियाँ
बाज़ार से रोटी, उसे चुरानी नहीं आती !

गुलदान के फूल बदलना वो अक्सर भूल जाता है
उसे खुशियाँ, आज भी, गले लगानी नहीं आती !

बड़े लोगो से वो अक्सर फ़ासला रखता है
दुनियादारी उसे आज भी निभानी नहीं आती !!

Monday, November 30, 2009

होंसला तो चले ..

ठहरी हुई मंजिलो से आगे, रास्ता तो चले
मैं थक भी जाऊ, मगर ये होंसला तो चले

अंधेरो मैं खवाब भी डगमगाने लगे हैं
सहर तक, कहीं कोई समां तो जले

ये विराना पलकों को बंज़र न कर दे
साहिल से कोई लहर आकर तो मिले

शब्दों के गलियारे कहीं गुमनाम ना रह जाए
कागज़ के पन्नो से निकल कर जिंदगी तो चले

बाज़ार की रोनक है कि बस बढती ही जाती है
दीवारो से रिश्ते लहू का भी कोई हिसाब तो मिले

फिर काफ़िर को बस्ती से निकल जाने का हुक्म आया है
कभी इन हुक्मगारो की नीयत पर भी कोई गुफ्तगू तो चले

विस्वास की सरहदों पे लाशे तो बो दी हैं हमने
इन लकीरों मैं हकीकत कहाँ दफन है, कुछ पता तो चले

सूखे पत्तो की भीड़ से जमी ढकने लगी है
पतझड़ के मोसम मैं कहीं से हवा तो चले